सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखाई देता है| हमारे देश में सास और बहू का रिश्ता भी कुछ कुछ ऐसा ही है | सास को बहू में और बहू को सास में हमेशा खोट ही दिखाई देती है |पाश्चात्य संस्कृति में यह दर्जा सास और दामाद के रिश्ते को मिला हुआ है |जैसा की मैं पहले भी लिख चुका हूँ शिक्षण से इस रिश्ते की सोच में कोई फर्क नहीं पड़ता |कब से इस रिश्ते में खटास आई इसके बारे में निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता पर इतिहास के पन्नो में भी इसका जिक्र देखने को मिल जाता है |हम इसे क्यों बदल नहीं पाते यह एक अच्छा शोध का विषय है और मुझे पूरा विश्वास है की कई दिग्गज इस शुभ कार्य में व्यस्त भी होंगे |मेरी समझदानी का छेद जरा छोटा है फ़िर भी मैने अपने दिमागी घोडे कुछ दूर तक तो दौडा ही लिये।
हमारा सोच और हमारा बर्ताव हमारे पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश से ढलता है |हम अपने इस परिवेश से अपनी पांचो इन्द्रियों से जो चीजें सोखते है वही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण और विकास करती है।नकल से अकल आती है,हमारे प्रारभिंक बौध्दिक विकास में नकल का बडा महत्व है।सामाजिक संरचना के चलते कुछ परिपाटियां बन जाती हैं।घर,समाज,देश हमे एक निश्चित सांचे मे कैद कर देता है ।जैसे कहीं भी थूकना,नित्यकर्म से निपटना हमारा राष्ट्रीय चरित्र है और हम चाह कर भी इसे त्याग नही पाते वैसे ही हमारे सामाजिक परिवेश मे सास बहू का रिश्ता सामान्य नही रह पाता।एक और उदाहरण देता हूं, कॉलेज में जब पढ़ते थे उस समय मैंने यह देखा था की हम उन्ही शिक्षको की क्लास में हल्ला करते थे जिनकी क्लास में हमारे सिनिअर्स हल्ला करते थे |ऐसा बहुत ही कम देखने में आया की इस परिपाटी को किसी नयी बैच ने तोडा हो |यही परिपाटी इस देश में सास बहू के रिश्ते को सामान्य नहीं होने देती।
इस विशय पर मेरे एक मित्र ने बडी ही मजेदार व्याख्या की है।ऊसके अनुसार एक मां अपने लडके को बडी मेहनत से कपडे पहनना सिखाती है और बहू एक ही इशारे से उसके कपडे उतरवा लेती है, भला दोनो में कैसे जम सकती है?
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