इस बार नहीं
इस बार वो छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी
खरोंच लेकर आएगी
मै उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूंगा उसकी तीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मै चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भूला देने वाले
दर्द को रिसने दूंगा , उतरने दूंगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
न ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और न ही कहूँगा की तुम आँखे बंद कर लो
गर्दन उधर कर लो मै दवा लगाता हूँ
देखने दूंगा सबको हम सब को , खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझने देखूँगा ,छटपताहट देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूंगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला देकर नहीं उठानूंगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूंगा जिंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूंगा उसे कीचड में ,टेढ़े मेढ़े रास्तों पर
नहीं सूखने दूंगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूंगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूंगा उसे इतना लाचार
कि पान की पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाये
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोडा लम्बे वक्त तक
कुछ फैसले
और उसके बाद हौसले
कंही तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है .
प्रसून जोशी
|गुस्सा हम सब को भी आता है पर हम सब नपुंसक हो गए है |हम तो अपने इस गुस्से का प्रसून जोशी की तरह इजहार भी नहीं कर पाते | शायद अब "यदा यदा ही धर्मस्य ........" वाला समय आ गया है | देखें कौन सा कृष्ण किस अर्जुन को धर्म युध्द का पाठ पढाता है |
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Tuesday, November 24, 2009
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